सार्वजनिक नीति के जरिये दी जाने वाली प्रतिक्रिया भी संतोषजनक नहीं रही है। गरीब और न्यूनतम मेहनताना अर्जित करने वालों को खराब गुणवत्ता की सब्सिडी वाली वस्तुओं से ही संतोष करना पड़ता है। इससे वृद्घि को भी कोई सहायता नहीं मिलती। बल्कि इससे लेनदेन की लागत बढ़ती है और दुर्लभ संसाधनों तक पहुंच में प्राथमिकता की चाह भी। यही कारण है कि अफसरशाह और नेताओं को एम्स में चिकित्सा सुविधा, सस्ती दरों पर बेहतरीन निजी स्वास्थ्य सेवा और गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक आवास जैसी सुविधाओं में प्राथमिकता प्रदान की जाती है।
आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक

खाद्य पदार्थों के लगातार गिरते दाम चिंता का कारण

सितंबर 2016 से नवंबर 2018 तक कुल महीने होते हैं आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक 27 यानी सवा दो साल की अवधि। इन 27 महीनों में देश में उपभोक्ता खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति की दर सामान्य मुद्रास्फीति की दर से लगातार कम बनी हुई है। बेशक महँगाई के मोर्चे पर सरकार के लिये यह राहत-भरी खबर है, लेकिन खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार गिरावट ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिये निस्संदेह चिंता का एक बड़ा कारण है।

गौरतलब है कि इन 27 महीनों में से 5 महीने ऐसे रहे जब आधिकारिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में वार्षिक वृद्धि नकारात्मक रही। इसका अर्थ यह है कि हमें सब्जियों, दालों, चीनी या अंडे आदि के लिये एक साल पहले की तुलना में कम दाम चुकाने पड़ रहे हैं।

थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

देश की खुदरा और थोक महँगाई को मापने वाले इन दोनों सूचकांकों के आँकड़े हर महीने जारी होते हैं, लेकिन इन दोनों सूचकांकों की आधारभूत जानकारी न होने की वज़ह से इन्हें समझने में कठिनाई होती है। मुद्रास्फीति का आकलन करने के लिये थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दो महत्त्वपूर्ण पैरामीटर हैं।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आँकड़ों के ज़रिये सरकार को महँगाई की मौजूदा स्थिति का पता चलता है। रिज़र्व बैंक ने भी अप्रैल 2014 से अपनी मौद्रिक नीति का मुख्य निर्धारक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को बना लिया है। विश्व के अधिकांश देश मुद्रास्फीति का आकलन करने के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का ही इस्तेमाल करते हैं।

भारत में नीतियाँ बनाने में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महँगाई दर का इस्तेमाल किया जाता रहा है। थोक बाज़ार में वस्तुओं के समूह की कीमतों में सालाना कितनी बढ़ोतरी हुई है, इसका आकलन महँगाई के थोक मूल्य सूचकांक के ज़रिये किया जाता है। भारत में इसकी गणना तीन तरह की महँगाई दर- प्राथमिक वस्तुओं, ईंधन और विनिर्मित वस्तुओं की महँगाई में हुई कमी-तेज़ी के आधार पर की जाती है।

बन रहे हैं अपस्फीति जैसे हालात

सुनने में यह अजीब लग सकता है, लेकिन सच यही है कि आज देश में सरकार की सबसे बड़ी चिंता खाद्य पदार्थों के लगातार गिरते हुए दामों को थामने की है। नवंबर महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी रिटेल महँगाई दर 17 महीनों के निचले स्तर 2.33% पर रही, जो एक महीना पहले 3.31% थी। इस गिरावट का प्रमुख कारण विभिन्न आवश्यक खाद्य पदार्थों के मूल्य में कमी होना है। एक साल पहले की तुलना में खाद्य पदार्थों के दामों में 6.96% की भारी कमी आई है। खाद्य पदार्थों के मूल्यों में लगातार आ रही इस प्रकार की कमी से लगभग ‘अपस्फीति’ जैसी परिस्थितियाँ बन रहीं हैं, जो भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई।

क्या है अपस्फीति (Deflation)?: अपस्फीति की स्थिति मुद्रास्फीति से ठीक उल्टी होती है। मुद्रास्फीति में वस्तुओं के दामों में वृद्धि होती है, जबकि अपस्फीति की स्थिति में वस्तुओं के दाम लगातार कम होते जाते हैं। इसके राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव हो सकते हैं। आर्थिक प्रभावों में इसका असर तब स्पष्ट देखने को मिलता है, जब मुद्रास्फीति को लेकर रिज़र्व बैंक के अनुमानों और वास्तविक अनुमानों में अंतर सामने आता है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार कमी की वज़ह से कृषि क्षेत्र में असंतोष देखने को मिलता है।

मांग, आपूर्ति और वृद्घि में धीमापन

देश में इस बात पर बहस चल रही है कि क्या मौजूदा मंदी मांग अथवा आपूर्ति बाधित अर्थव्यवस्था को परिलक्षित कर रही है। विश्लेषण किया जाए तो यह सवाल तब उठता है जब मंदी की प्रकृति चक्रीय हो। यदि समेकित मांग कुल उत्पादन क्षमता से कम हो तो अर्थव्यवस्था मांग बाधित होती है। परंतु यदि समेकित मांग के बावजूद वास्तविक उत्पादन, उत्पादन क्षमता से कम हो तो इसे आपूर्ति क्षेत्र की बाधा वाली मंदी कहा जा सकता है। ढांचागत मंदी अधिक जटिल होती है। विकासशील देशों में ऐसी मंदी के लिए विशिष्ट कारकों को उत्तरदायी ठहराया जाता है। इनमें बुनियादी ढांचे की कमी, अत्यधिक नियमन आदि प्रमुख हैं। लेकिन मांग आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक और आपूर्ति के कारक भी उतने ही उत्तरदायी होते हैं।

मांग उस मूल्य से संबंधित होती जिस पर वस्तुओं और सेवाओं की पेशकश की जाती है। आपूर्ति क्षेत्र की बाधाओं के कारण कीमतें इतनी अधिक हो सकती हैं कि समेकित मांग कम हो जाए। यह तब होता है जब ये बाधाएं उत्पादकता कम करती हैं और इसलिए कीमत इतनी ज्यादा हो जाए कि वृद्घि को समर्थन देने के लिए जरूरी मांग ही तैयार न हो पाए। व्यापार में कोई बाधा न होने से ऐसी मांग की पूर्ति बढ़े हुए आयात के माध्यम से भी की जा सकती है। इससे घरेलू उत्पादन और वृद्घि को कोई मदद नहीं मिलेगी।

आपूर्ति का नियम

सूक्ष्मअर्थशास्त्र में, आपूर्ति अर्थ का नियम बताता है कि किसी वस्तु की कीमत का उसकी आपूर्ति के साथ सीधा संबंध है। यदि उत्पाद की कीमत बढ़ती है, तो इसकी आपूर्ति में वृद्धि होगी। इसी तरह, वस्तु की कीमत जितनी कम होगी, उसकी आपूर्ति उतनी ही कम होगी। दूसरे शब्दों में, आपूर्तिकर्ता में बेचे जाने वाले उत्पादों की मात्रा बढ़ाने की प्रवृत्ति होती हैमंडी जब इसकी कीमत अधिक पैसा कमाने के लिए बढ़ जाती है।

Law of supply

अन्य कारकों को अलग रखते हुए, आपूर्ति का नियम कहता है कि किसी वस्तु की आपूर्ति की कीमत और मात्रा के बीच हमेशा सीधा संबंध होता है। मूल रूप से, बाजार में लाए जाने वाले उत्पाद की मात्रा से संबंधित निर्णय निश्चित होता है। वे उत्पाद का निर्माण करते हैं और बाद में तय करते आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक हैं कि उन्हें कितना बेचना है।

आपूर्ति के नियम का उदाहरण

इसका उपयोग मूल्य परिवर्तन और उत्पादक व्यवहार पर उनके प्रभावों के बीच संबंध का विश्लेषण करने के लिए भी किया जाता है। आइए एक उदाहरण के साथ अवधारणा को समझते हैं। एक कंपनी समय के साथ मांग बढ़ने पर बाजार में अधिक सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन लाने आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक की कोशिश करती है। इसी तरह, निर्माता अपने समय और संसाधनों को अधिक वीडियो सिस्टम में निवेश नहीं करेगा यदि इसकी मांग कम हो जाती है। दूसरे शब्दों में, एक कंपनी 2000 सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन बेच सकती है यदि इसकी कीमत $500 प्रत्येक है। वे इन ऐप्स के उत्पादन और आपूर्ति में वृद्धि कर सकते हैं यदि इसकी कीमत $100 से बढ़ जाती है।

आपूर्ति का नियम सभी वस्तुओं और संपत्तियों पर लागू होता है। न केवल उत्पादों के लिए, बल्कि यह कानून सेवा क्षेत्र पर भी लागू होता है। उदाहरण के लिए, यदि छात्रों को लगता है कि चिकित्सा नौकरियों से उन्हें साहित्य की नौकरियों की तुलना में अधिक वेतन आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक मिल सकता है, तो वे कंप्यूटर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों का विकल्प चुनेंगे। नतीजतन, चिकित्सा उद्योग में पढ़ाई करने वाले लोगों की आपूर्ति में वृद्धि होगी। जब वस्तु की कीमत में परिवर्तन होता है तो आपूर्ति के नियम का उपयोग विशेष रूप से आपूर्तिकर्ताओं के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।

बन रहे हैं अपस्फीति जैसे हालात

सुनने में यह अजीब लग सकता है, लेकिन सच यही है कि आज देश में सरकार की सबसे बड़ी चिंता खाद्य पदार्थों के लगातार गिरते हुए दामों को थामने की है। नवंबर महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी रिटेल महँगाई दर 17 महीनों के निचले स्तर 2.33% पर रही, जो एक महीना पहले 3.31% थी। इस गिरावट का प्रमुख कारण विभिन्न आवश्यक खाद्य पदार्थों के मूल्य में कमी होना है। एक साल पहले की तुलना में खाद्य पदार्थों के दामों में 6.96% की भारी कमी आई है। खाद्य पदार्थों के मूल्यों में लगातार आ रही इस प्रकार की कमी से लगभग ‘अपस्फीति’ जैसी परिस्थितियाँ बन रहीं हैं, जो भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई।

क्या है अपस्फीति (Deflation)?: अपस्फीति आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक की स्थिति मुद्रास्फीति से ठीक उल्टी होती है। मुद्रास्फीति में वस्तुओं के दामों में वृद्धि होती है, जबकि अपस्फीति की स्थिति में वस्तुओं के दाम लगातार कम होते जाते हैं। इसके राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव हो सकते हैं। आर्थिक प्रभावों में इसका असर तब स्पष्ट देखने को मिलता है, जब मुद्रास्फीति को लेकर रिज़र्व बैंक के अनुमानों और वास्तविक अनुमानों में अंतर सामने आता है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार कमी की आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक वज़ह से कृषि क्षेत्र में असंतोष देखने को मिलता है।


मांग और आपूर्ति का सिद्धांत

मांग कम और उत्पादन अधिक होने की वज़ह से किसानों को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिल पाता। खाद्य पदार्थों की कीमतों में कमी की एक बड़ी वज़ह इनका देश में बढ़ता उत्पादन और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कीमतों का कम आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक होना है। इससे देश से होने वाले कृषि निर्यात में भी कमी आ जाती है, जबकि देश में होने वाले इनके आयात का खतरा बराबर बना रहता है। इसे एक उदाहरण की सहायता से समझने का प्रयास करते हैं- हाल ही में महाराष्ट्र में प्याज़ की बंपर फसल हुई। इतना अधिक उत्पादन हुआ कि कीमतें रसातल में चली गईं और किसान अपनी उपज को सड़कों पर फेंकने या औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हो गए। उनके उत्पादन की लागत भी नहीं निकल पाई। साथ ही इससे ग्रामीण मांग में भी कमी आती है और भूमिहीन मज़दूरों पर इसका बेहद विपरीत प्रभाव पड़ता है।

inflation

शहरी वर्ग को मिलती है राहत

खाद्य पदार्थों की कीमतें कम होने से एक ओर जहाँ ग्रामीण या कृषि अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ता है, वहीं शहरों में रहने वाले निम्न-मध्यम वर्ग को इससे राहत मिलती है। सीमित आमदनी के कारण वस्तुओं के दाम आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक कम होने से उन्हें अन्य मदों पर खर्च करने की सुविधा मिल जाती है। दूसरी तरफ, वस्तुओं के आपूर्ति और मांग क्षेत्र संकेतक दाम कम होने से रिज़र्व बैंक को भी ब्याज दरें कम करने में आसानी रहती है।

farmer

  • सबसे पहले तो यह ध्यान में रखना होगा कि कृषि क्षेत्र से प्राप्त आय ही किसानों की आजीविका का प्रमुख स्रोत है। इसलिये आय केंद्रित बिंदु को ध्यान में रखते हुए कृषि क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव किये जाने बेहद ज़रूरी हैं।
  • इनके तहत उच्च उत्पादकता सुनिश्चित करते हुए कृषि लागत में कमी करने और किसानों को उनके उत्पादों का पारिश्रमिक मूल्य दिलाये जाने संबंधी लक्ष्यों पर ध्यान देना होगा।
  • खरीद प्रक्रिया और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) नेटवर्क को सुव्यवस्थित बनाने पर विशेष ज़ोर देना होगा।
  • ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें किसान अपनी उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत या उससे अधिक पर MSP प्राप्त करने के साथ-साथ अधिकतम लाभ भी हासिल कर सकें।
  • कृषि क्षेत्र में विशेषकर छोटे एवं सीमांत किसानों की मुश्किलें कम करने के लिये आमदनी बढ़ाने के अन्य उपाय भी करने की ज़रूरत है।
  • उत्पादन, बाज़ार और मूल्यों से जुड़े जोखिम के चलते किसानों की अस्थिर आय के मद्देनज़र किसानों की आय बढ़ाने के ऐसे उपाय करने होंगे जो लंबे समय तक प्रभावकारी रह सकें।
  • घटती श्रम-शक्ति और बढ़ती लागत की वज़ह से कृषि कम लाभदायक और गैर-लाभकारी होती जा रही है। ऐसे में कृषि उपजों के प्रसंस्करण और उनके मूल्य-वर्द्धन में भी किसानों की आय बढ़ाने की काफी संभावनाएं हैं।
रेटिंग: 4.73
अधिकतम अंक: 5
न्यूनतम अंक: 1
मतदाताओं की संख्या: 555